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Showing posts from July, 2021

रस

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रस की अवधारणा भारतीय कला के कई रूपों के लिए मौलिक है, जिसमें नृत्य, संगीत, संगीत थिएटर, सिनेमा और साहित्य शामिल हैं, एक विशेष रस का उपचार, व्याख्या, उपयोग और वास्तविक प्रदर्शन अभिनय की विभिन्न शैलियों और स्कूलों के बीच बहुत भिन्न होता है, और एक शैली के भीतर भी विशाल क्षेत्रीय अंतर। भरत मुनि ने नाट्यशास्त्र में आठ रसों का प्रतिपादन किया, जो नाटकीय सिद्धांत और अन्य प्रदर्शन कलाओं का एक प्राचीन संस्कृत पाठ है, जिसे 200 ईसा पूर्व और 200 ईस्वी के बीच लिखा गया था। भारतीय प्रदर्शन कलाओं में, रस एक भावना या भावना है जो कला द्वारा दर्शकों के प्रत्येक सदस्य में पैदा होती है। नाट्य शास्त्र में एक खंड में छह रसों का उल्लेख है, लेकिन रस पर समर्पित खंड में यह आठ प्राथमिक रसों का उल्लेख और चर्चा करता है। नाट्यशास्त्र के अनुसार प्रत्येक रस का एक पीठासीन देवता और एक विशिष्ट रंग होता है। रस के 4 जोड़े होते हैं। उदाहरण के लिए, हस्य श्रृंगारा से उत्पन्न होता है । भयभीत व्यक्ति की आभा काली होती है, और क्रोधित व्यक्ति की आभा लाल होती है। भरत मुनि ने निम्नलिखित की स्थापना की • garaḥ (श्रीङ्गारः): रोमांस,

कला..2

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कला संस्कृति की वाहिका है। भारतीय संस्कृति के विविध आयामों में व्याप्त मानवीय एवं रसात्मक तत्व उसके कला-रूपों में प्रकट हुए हैं। कला का प्राण है रसात्मकता। रस अथवा आनन्द अथवा आस्वाद्य हमें स्थूल से चेतन सत्ता तक एकरूप कर देता है। मानवीय संबन्धों और स्थितियों की विविध भावलीलाओं और उसके माध्यम से चेतना को कला उजागार करती है। अस्तु चेतना का मूल ‘रस’ है। वही आस्वाद्य एवं आनन्द है, जिसे कला उद्घाटित करती है। भारतीय कला जहाँ एक ओर वैज्ञानिक और तकनीकी आधार रखती है, वहीं दूसरी ओर भाव एवं रस को सदैव प्राणतत्वण बनाकर रखती है। भारतीय कला को जानने के लिये उपवेद, शास्त्र, पुराण और पुरातत्त्व और प्राचीन साहित्य का सहारा लेना पड़ता है।भारतीय साहित्य में कलाओं की अलग-अलग गणना दी गयी है। कामसूत्र में ६४ कलाओं का वर्णन है। इसके अतिरिक्त 'प्रबन्ध कोश' तथा 'शुक्रनीति सार' में भी कलाओं की संख्या ६४ ही है। 'ललितविस्तर' में तो ८६ कलाएँ गिनायी गयी हैं। शैव तन्त्रों में चौंसठ कलाओं का उल्लेख मिलता है। Ashish Mohan Maqtool

निराकार

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निराकार या अब्स्ट्रक्ट किसे कहते है ? अगर मैं ये कहूँकि साकार जैसी कोई चीज होती ही नहीं तो तुम क्या कहोगे या ये कहूं कि एब्स्ट्रेक्ट ही सत्य है तो तुम क्या कहोगे ? दरअसल जब तक किसी भी चीज का आकर तय नहीं होता या हमें उसके आकर और नाम कि ठीक से पहचान नहीं होती तब तक हर चीज एब्स्ट्रेक्ट है ।एब्स्ट्रेक्ट सत्य है ,प्रारम्भ से पहले और अंत के बाद सिर्फ और सिर्फ एब्स्ट्रेक्ट है ।जैसे मिटटी निराकार है और उससे बने बर्तन साकार फिर जब बर्तन फुट जाये टुकड़े टुकड़े हो जाये तो फिर से निराकार ।बादल,पहाड़ ,नदियां ,सब निराकार ही तो है ।मैंने अक्सर लोगों को ये कहते सुना है कि एब्स्ट्रेक्ट का मतलब जो समझ में न आये ।ऐसा नहीं है।जहाँ पर आप कि ग्रामर ख़तम हो जाती है वहीं से निराकार कि शुरुवात होती है ।साकार तो एक थोड़े से समय के लिए होता है निराकार सर्वकालिक है ।हमारे शरीर को ही ले लो जन्म से पहले यह क्या था और मृत्यु के बाद क्या होगा ,निराकार ।सच तो ये है कि जिन चीजों को हम आसानी से समझ पते है या जो हमें पहले से जानी पहचानी होती है उन्हें हम जल्दी स्वीकार कर लेते है ,उनके लिए हमारे मस्तिष्क को परिश्रम नहीं

कला..2

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कला की व्याख्या करना या इसकी परिभाषा देना आसान नहीं है ।कला को प्रत्येक व्यक्ति या कलाकर अपने ढंग से व्याख्यायित या परिभाषित करता है ।किसी के लिए भावनाओं को व्यक्त करने का साधन है तो किसी के लिए कला संचार का माध्यम ।सबसे कमाल की बात तो यह है कि किसके सम्बन्ध में दी गयी कोई भी परिभाषा गलत नहीं होती ।मैं तो जब भी कभी कला के बगैर समाज कि कल्पना भी करता हूँ तो डर जाता हूँ क्यों कि यदि कला नहीं होगी तो ये समाज भी नहीं होगा । कला का आरम्भ कब हुवा ।ये एक दिलचस्प सवाल है ।इसके लिए मैं एक बात बता दूँ कि जब भी हम कोई नयी चीज बनाते है या ये कहूं कि जब भी हम किसी नयी चीज का अविष्कार या खोज करते है वो सबसे पहली बार में वो कला ही होती है ।तो इस तरह से जब भी हम मानव जीवन कि शुरुवात मानते है तभी से कला कि शुरुवात भी हुयी होगी ।जब मानव ने पहली बार आग जलाई होगी तो वो कला थी .जब उसने शिकार के लिए औजार बनाये होंगे तो वो कला थी ,शिकार के बाद जीत कि खुसी में जब वो पहली बार नचा होगा वो कला थी ,पहला घर ,गुफा में चित्रकारी ये सब कला ही तो थी ।कला ही वो ऊँगली थी जिसे पकड़ कर मानव ने चलना सीखा होगा । Ashish

एक गांव था..

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गांव था जो हरे हरे खेतों के बीच किसी द्वीप जैसा दिखता था,गांव के द्वार पर खड़ा था एक बूढ़ा पीपल, जो कुछ बोलता नहीं था,बस मुँह फुलाए देखता रहता था हर आने जाने वाले को, पता सब था पर उसे क्या पड़ी थी किसी की बुराई करे या तारीफ करे| पीपल के पास था गुड़ बनाने वाला कोल्हू,सर्र्दियो में क्या महक आती थी,मुझे मीठा कुछ खास पसंद नहीं पर उस गुड़ की मिठास अभी भी है जुबान पर| वही सामने ही तो था स्कूल| स्कूल तक में भर जाती थी महक, हल्का कोहरा जिसमे से गुड़ की भट्टि का धुवा अलग कर पाना कठिन था, स्कूल से कमीरा बाबा(पीपल) भी तो साफ नही दीखते थे|हाँ अगर कोई अलाव जलाता तो लाल पीली रोशनी दिखती थी और उसके पास बैठा दीखता था इन्शान | सर पर बड़ा सा पग्गड़,लिहाफ़ लपेटे,घुटनों तक धोती बांधे इन्शान.हुक्के में अलाव से आग निकाल कर भरते हुए कुछ गुनगुना रहा था..(उठो अलबेली बाहरि लाओ अँगना)....इतना शांत था सब कुछ की उसकी गवई साफ सुनाई दे रही थी, अभी भी जब शांत होता हूँ तो सुनाई देती है,बाहर जाकर भी देखता हूँ पर भीड़ के सिवा कुछ नही दीखता न अलाव न इन्शान,न गुड़ की महक न कमीरा बाबा,कुछ भी नही दीखता बथुवा और उरद की दाल(सागपाहिता

६४ कलाओं का वर्णन..

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भारतीय संस्कृति के विविध आयामों में व्याप्त मानवीय एवं रसात्मक तत्व उसके कला-रूपों में प्रकट हुए हैं। कला का प्राण है रसात्मकता। रस अथवा आनन्द अथवा आस्वाद्य हमें स्थूल से चेतन सत्ता तक एकरूप कर देता है। मानवीय संबन्धों और स्थितियों की विविध भावलीलाओं और उसके माध्यम से चेतना को कला उजागार करती है। अस्तु चेतना का मूल ‘रस’ है। वही आस्वाद्य एवं आनन्द है, जिसे कला उद्घाटित करती है। भारतीय कला जहाँ एक ओर वैज्ञानिक और तकनीकी आधार रखती है, वहीं दूसरी ओर भाव एवं रस को सदैव प्राणतत्वण बनाकर रखती है। भारतीय कला को जानने के लिये उपवेद, शास्त्र, पुराण और पुरातत्त्व और प्राचीन साहित्य का सहारा लेना पड़ता है।भारतीय साहित्य में कलाओं की अलग-अलग गणना दी गयी है। कामसूत्र में ६४ कलाओं का वर्णन है। इसके अतिरिक्त 'प्रबन्ध कोश' तथा 'शुक्रनीति सार' में भी कलाओं की संख्या ६४ ही है। 'ललितविस्तर' में तो ८६ कलाएँ गिनायी गयी हैं। शैव तन्त्रों में चौंसठ कलाओं का उल्लेख मिलता है। कामसूत्र में वर्णित ६४ कलायें निम्नलिखित हैं-   1- गानविद्या 2- वाद्य - भांति-भांति के बाजे बजाना 3- नृत्य 4-

कहानियों का सौदागर- उत्कर्ष चतुर्वेदी

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मेरे लिए यह तय कर पाना बहुत मुश्किल हो रहा है कि मैं उत्कर्ष चतुर्वेदी से बात शुरू करू या फिर उनकी फिल्मों से। चलिए बात शुरू करते हैं कहानी के हीरो से,उत्कर्ष चतुर्वेदी से। उत्कर्ष को अभी तक मैं जितना जान पाया हूँ उस हिसाब से मैं ये कह सकता हूँ की एक लड़का जो कहानियो का सौदागर है। कहानियो में खुद को ढूंढ़ लेना हो या फिर अपने आसपास से कहानी को खोज लेना , उत्कर्ष दोनों ही फ़न में माहिर हैं। ज़िन्दगी को अपने ही ढंग से जीने वाला ये कहानीकार इन दिनों कैमरे के पीछे खड़े होकर नए नज़रिये से कहानियां दिखानें का जिम्मा उठाया है। उत्कर्ष चतुर्वेदी का जन्म 1 नवंबर 1999 को मथुरा, भारत में हुआ था। वह सबसे कम उम्र के फिल्म निर्माता और फिल्म गीक में से एक हैं। वह आईआईटी मद्रास से फिल्म एप्रिसिएशन कर रहे हैं और जगन्नाथ यूनिवर्सिटी से पत्रकारिता की डिग्री भी हासिल कर रहे हैं। इसके साथ ही वह एक बांसुरी वादक और कहानीकार और विभिन्न पुरस्कारों के प्राप्तकर्ता हैं और उनकी फिल्म को आरके फिल्म महोत्सव में सर्वश्रेष्ठ फिल्म के रूप में सम्मानित किया गया है। उन्हें उनकी हाल ही में मशहूर शॉर्ट फिल्म मिसिंग फेस

College of Art and craft Lucknow

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मुझे बाकि जगहों के बारे में ज्यादा जानकारी तो नहीं पर इस कॉलेज को अच्छे से जनता हूँ,यहाँ जो भी लोग मिलते है वो दिल के साफ होते है।आर्ट्स कॉलेज एक खूबसूरत दुनिया थी उचे ऊंचे पेड़ो से घिरी एक पुरानी सी ईमारत जो अपने भीतर हज़ारो कहानिया समेटे शांत खड़ी दिखती है ।मेन गेट से अंदर आते ही आप एक अलग सी जादुई दुनिया में प्रवेश कर जाते हो ऊंची छतो और मोटी दीवारों वाली इस ईमारत का इतिहास बहुत पुरांना है,मेरे जैसे बहुत सरे कला के उपासक यही से निकले कुछ ने विश्व स्तर पर अपनी पहचान बनाई और कुछ अतीत का हिस्सा बन कर रह गए।ऐसा नहीं है जो इस मंदिर से निकल कर बड़े बने उनका जितना हक़ है इस पर उतना उनका भी जो अतीत के गलियारों में गुमशुदा है ।तमाम गौरव गाथाये है तो तमाम प्रेम कहानिया जो कैंटीन से लेकर टैगोर चौराहे तक बिखरी पड़ी है ।इस ईमारत की दीवारे तक यहाँ कभी कला साधना कर चुके कला योगियों के हस्ताछरो से भरी पड़ी है ।यहाँ रखे मूर्तिशिल्प मुस्कराते हुए आज भी अपने कलाप्रेमी का इंतज़ार करते मिल जायेंगे इनसे बात करो तो ये बताएँगे वो कितना शांतिप्रिय रहा होगा या शरारती,कैसे वो चिढ़ जाता था जब उसके इस मूर्तिशिल्प पर

मीराबाई चानू और पहला रजत पदक ..

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शनिवार २४ जुलाई का दिन भारत के लिए ऐतिहासिक रहा। टोकियो ओलम्पिक में भारतीय मूल की मीराबाई चानू ने ४९ किलोग्राम भरतवर्ग रजत पदक दिलाया। चानू वेटलिफ्टिंग में ओलम्पिक पदक जितने वाली दूसरी महिला बन गई हैं। मीराबाई चानू रियो ओलंपिक्स में मिली हार से बुरीतरह टूट गई थी मगर ये उनके जूनून और अथक परिश्रम का नतीजा है की आज भारत का तिरंगा शान से लहरा रहा है। मीराबाई चानू ने एक दफा कुछ लाइनें पोस्ट की थीं ( It takes effort, includes injuries, experiences failures....but the path to Success was never easy for anyone!! ) इनका मतलब है - इसमें प्रयास लगता है, चोटें भी लगती हैं और असफलताओं का अनुभव भी शामिल होता है लेकिन सफलता की रह कभी भी किसी के नहीं होती। हम मीराबाई चानू के हौसले को सलाम करते हैं। मीरा बाई चानू का जन्म ८ अगस्त १९९४ को मणिपुर के इम्फाल पूर्व के नोंगपोक काकचिंग में एक हिंदू परिवार में हुआ था। मीराबाई चानू का पूरा नाम सैखोम मीराबाई चानू है। वे भारत की तरफ से भारोत्तोलन के खेलों में हिस्सा लेती हैं। उनके कोच का नाम विजय शर्मा है। वे इन्ही के नेतृत्व में अपने खेल का अभ्यास करती

pandemic

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Your understanding and restraint is the most effective medicine during the pandemic.

खूबशूरत रिस्तेदारी

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।दोस्ती एक ऐसा रिस्ता है जिसमे मतलब नहीं होता,इसमें शिकायते भी नहीं होती।आप कितने भी थके हो पर भाई ने बोला तो जाना ही पड़ेगा ।आप कितने भी व्यस्त हो पर भाई ने बोला तो उसका काम पहले,२ चाय में ४ लोग ,खुद के लिए भले ही न जगे हो पर दोस्त के लिए सारी सारी रात जग कर उसका काम करवाना ,और कमाल की बात है की इन सब चीजों का कोई भी हिसाब नहीं ।दोस्ती एक ऐसा तोहफा है जो किस्मत से आप को नशीब होता है ,मुझे याद है मैं आज जितना खुद को कमज़ोर पता हूँ उतना दोस्तों के साथ कभी नहीं था ।आप की आँख में एक भी आशु आजाये तो आप का दोस्त दुनिया में आग लगाने पर आ जाता है वो बोलते थे न की भाई तुझे सिर्फ मैं रुलाऊंगा बाकि अगर कोई और आया तो उसकी......... । आज भी जब कभी भगदौड़ से थक जाता हूँ , टूटने लगता हूँ तो जी करता है की कोई दोस्त होता तो आकर बोल देता- क्यों मुँह लटकाये बैठे हो गर्लफ्रेंड भाग गई क्या ..? अच्छा आप सोच कर देखो आपस में कम्पटीसन भी था मगर जीत किसी की भी हो पार्टी सारे मिल कर देते थे,भले बाद में पैसे मांग मांग कर जीना हराम कर दे । दोस्त थे जिन्होंने मेरी ज़िंदगी को अपनी मौजूदगी से महका दिया सबने कुछ न

Art is the language of the heart

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कला क्या है.. ? (मैंने पूछा) यह एक ऐसा सवाल है जिसे हर किसी ने अपनी तरह से परिभाषित करने की कोशिश की है और उसका तर्क सही भी है । मेरा मानना है की कला जैसे विषय को एक या दो लाइनों में परिभाषित कर पाना कठिन है, कला की किसी एक विधा में इतनी गहराई है जिसे नापा नहीं जा सकता तो सम्पूर्ण कला को कैसे एक जीवन में समझा जा सकता है । मैं कला के लिए सिर्फ एक बात बोलता हूँ की .... आर्ट इज़ द लैंग्वेज ऑफ़ हार्ट । कला ठीक उसी तरह हैं जैसे हम हवा का आनंद लेते है, जैसे हम ईश्वर की उपासना करते है,जैसे हम नदी पर्वतो और समंदर को देखते है ठीक वैसे ही कला एक प्रकार का सुख है ,जिसे हम महसूस करते है,हम इसे लिख नहीं सकते ,बता भी नहीं सकते । कला आप को स्वयंभू बनती है,आप के भीतर की कलए की आप की श्रेष्ठता निर्धारित करती है यदि आप कला विहीन है तो निश्चय ही आप में भाव नहीं होंगे और यदि भाव ही नहीं है तो आप इन्शान नहीं हो सकते ।जब कोई कलाकार किसी कला का सृजन करता है तो वह अपने उन भाव को व्यक्त करता है जिन्हे वो अन्य किसी तरीके से नहीं व्यक्त कर सकता ।कला आप को ईश्वर के करीब लेजाती है कला आप को इस नश्वर शरीर से

क ,ख ,ग ,घ ,ङ ......... ख़ाली

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मैं अपनी ज़िंदगी के कुछ खास किस्से आप को सुनाता हूँ,मैं अपने माँ बाप की इकलौती संतान हूँ,पर वो इकलौती संतान वाला प्यार कभी नहीं मिला,जूता चप्पल इतने पहने नही है जितने खाये है,और ये सब सिर्फ इसी लिए की मुझे तारे ज़मीं पर वाले ईशान की बीमारी थी,पढ़ाई में मज़ा ही नहीं आता था..रोज अपनी परेड करवाने के बाद ही सोता था, उस समय तो लगता था रिस्तेदार भी खून चुसने ही आते है,जब देखो (बेटा किस क्लास में हो,पढ़ाई कैसी चल रही है,कुछ सुनाओ) इस पर भी पेट नहीं भरता तो अपने बच्चो की तरीफ करने लग जाते,मैं समझ जाता बेटा आज तुझे रोज से ज्यादा पड़ने वाली है,और वही होता था.. चलो खैर गिरते पड़ते ९ तक तो पड़ गए,फ़िर था १०,भाईसाब,,जी तो करता था आत्महत्या ही कर लूँ,एक तो वैसे ही पढ़ाई में मन नही लगता था ऊपर से बोर्ड ,बच्चे की जान ले रखी थी सबने,उस समय मुझे घरवाले गब्बर सिंह लगते थे और मै बसंती,कसम से इतना नचाया जाता था कि पूछो ही मत,एक दो बार तो घर से भागने की भी कोशिश की पर माँ का सोच कर रुक गया,मुझे ऐसा लगता है अगर उस समय कोई मुझे समझता तो शायद मैं फेल न होता,ऐसा नही था की मैं पढ़ना नहीं चाहता था पर मुझे मज़ा नहीं आता

चाय और दर्शन...2

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कुछ देर तक माहौल शांत रहा फिर मेरे दोस्त ने कुछ लाइने बुदबुदाई - सवाल उठते रहे - जवाबों कि तलाश में , और हम ढूंढ़ते रहे खुद को- इन्शानियत कि लाश में । विचारों कि सड़न, उसूलों का कफ़न मेरे सामने पड़ा था, हम सधे खड़े रहे - बनावटी लिबाश में । मेरी आखों में पानी था आज मैं एक कहानी था, सब पी चूका था मैं कुछ भी नहीं था बाक़ी जज़्बातों के गिलाश में । मेरी लाश मेरे कन्धों पर थी कई ज़िंदगी मेरे कन्धों पर थी मैं चला जा रहा था - कहीं पहुंच जाने के अहसास में । चरों ओर था घनघोर अँधेरा मैं भूल चूका था नाम मेरा, मैं गिरा -फिर उठा दोबारा जीने कि आस में । अरे वाह ये तुमने लिखी ? (चाचा ने पूछा ) मुझे वो नज़्म लिख कर देदेना । तो सुनो मेरे बच्चों ज़िंदगी होती क्या है ,यही सवाल है न तुम्हारा ।ज़िंदगी को किसी भी तरह से परिभाषित नहीं क्या जा सकता । पत्येक व्यक्ति इसे अपने अपने ढंग से जीता है उसे जीने का तरीका ही उसकी अपनी ज़िंदगी कि परिभाषा बन जाता है

चाय और दर्शन..1

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तुमरी नज़र मा ज़िंदगी का है ? चचा ने माहौल को नापते हुए सवाल दे मारा। पूरा लखनऊ तो नहीं मगर पूरा डालीगंज इस बात से अच्छी तरह से वाकिफ है की लल्लन चचा कोई भी बात यूँ ही तो नहीं कहते । उनके पास बड़ा अनुभव है ।अपनी तिरसठ साल की उम्र में लगभग चार सरकारी और छे डेकेदारो के साथ काम कर चुके हैं ।अब लड़का आगरा में जूता फैक्ट्री में हेड कारीगर है तो कमाने की जरुरत कुछ खास है नहीं ।उम्र भी हो रही है फिर चाय की दुकान पर बैठ कर ज्ञान पेलने से बड़ा सुख और किसी चीज में है भी नहीं ।हमारे जैसे चार- छे आर्ट्स कॉलेज के लड़के चाय पिने के बहाने बैठे ही रहते है और चचा उनका ज्ञान बढ़ाते रहते हैं । महादेव भाई बैठ कर बस मुस्कराते ही रहते है और मुस्कराये भी क्यों न इसी बहाने उनकी चाय की बिक्री होती रहती है ।अगर आप कभी डालीगंज जाएँ तो ध्यान रखियेगा अगर कोई सफ़ेद कुरता पायजामा पाने साढ़े तीन- चार फिट का आदमी दिखे जिसके जिसके हाथ में गोल्डन कलर की घडी हो और वो मुस्करा रहा हो तो समझ जाइयेग की लल्लन चचा आप के सामने प्रकट हो चुके है और वो आप का एक -दो घंटा बिना डकार मरे खाने वाले हैं । चलो अब चचा के सवाल की ओर रुख करते हैं ।
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  ज़िंदगी   तू   भी   न  ..          हमारी ज़िंदगी जो की हमारी है हम उसे कितना जानते है , क्या हम उसे एक लाइन में लिख सकते है । क्या हम उसे बेहतर समझते है । क्या हम अपनी ज़िंदगी को वैसे ही जी रहे है जैसे हम चाहते है । हमारी ज़िंदगी दूसरों से अलग कैसे है । ऐसे तमाम सवाल है जो हमारी ज़िंदगी हमसे पूछती है और हम बात को रासन की लिस्ट में या ऑफिस की फ़ाइल के निचे दाब देते है और बिस्तर की सिलवटों में भर कर मर जाते है । सुबह होती तो है मगर क्या हम जागते है , नहीं न । फिर वही सरे सवाल दरवाजे पर किराया मांगने वालों की तरह खड़े हो जाते है और हम खिड़की से कूद कर निकल जाते है अपना तमसा बनाने , खुद को बेचने । शरीर ज़िंदा रखने के चक्कर में ज़िंदगी कहीं अधमरी सी हो गयी है , घिसट रही है । टाय की गांठ कुछ ज्यादा ही कस रही है , कहीं मर ही जाये ज़िंदगी । क्या ज़िंदा रहना इतना ज़रूरी है और अगर है तो सिर्फ ज़िंदा ही क्यों रहा जाये ज़िंदगी जी क्यों न